गर्मियों में प्यास से व्याकुल मृग को रेगिस्तान में थोड़ी दूरी पर पानी होने का भ्रम होता है, किंतु पास जाने पर केवल रेत-ही-रेत दिखाई देता है और फिर वहाँ से आगे पानी होने का भ्रम होने लगता है। वह पानी के इस भ्रम को वास्तविक पानी समझकर उसे पाने के लिए भागता रहता है। उसकी इस स्थिति को ही 'मृगमरीचिका' या ‘मृगतृष्णा' कहा जाता है। इस प्रकार प्रतीकात्मक अर्थ में ‘मृगतृष्णा' मिथ्या, भ्रम अथवा छलावे की स्थिति को कहा जा सकता है। ‘छाया मत छूना' कविता में कवि कहना चाहता है कि जीवन में प्रभुता यानी बड़प्पन की अनुभूति भी एक प्रकार से भ्रम ही है क्योंकि व्यक्ति इसे पाने के लिए मान-सम्मान, धन-संपति, पद-प्रतिष्ठा के लिए भागता रहता है और इसी भ्रम में वह पूरा जीवन छला जाता है और यह भ्रम उसे सुख नहीं, बल्कि दुख ही देता है।