वृद्ध मुंशी को जब यह पता चला कि उनका बेटा मुंशी वंशीधर नमक का दारोगा बनकर भी ऊपरी कमाई नहीं करता, रिश्वत नहीं लेता तो उन्हें उसकी विवेक - बुद्धि पर तरस आने लगा। वे मन ही मन बड़बड़ाते कि मुझे तो इसकी समझ पर खेद है, इसकी पढ़ाई - लिखाई व्यर्थ गई, क्योंकि यह तो अपना भला - बुरा ही नहीं सोच पाता। ऐसा अवसर बार - बार नहीं मिलता। ऊपरी आमदनी करके घर. की हालत सुधारता, यह तो सूखी तनख्वाह ही लेता है। इसे नौकरी बने और ऊपरी कमाई करने की तमीज ही नहीं है। इसीलिए वे वंशीधर पर असंतोष व्यक्त करते हुए सोच रहे थे कि इसकी पढ़ाई - लिखाई अकारथ (व्यर्थ) चली गई।