'नमक का दारोगा' हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित एक आदर्शवादी कहानी है, जिसमें कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि ईमानदारी, नैतिकता एवं कर्त्तव्यपरायणता जैसे मूल्य अभी समाप्त नहीं हुए हैं और इन मूल्यों पर चलने वालों को अन्तिम विजय अवश्य प्राप्त होती है। इस कहानी का सारांश निम्न प्रकार है मुंशी वंशीधर एक गरीब परिवार के युवक थे।
उनकी नियुक्ति नमक विभाग में दारोगा पद पर हो गई। उनके पिता चाहते थे कि मेरा पुत्र ऊपरी आमदनी करके घर की आर्थिक स्थिति को ठीक कर दे, जिससे ऋण का बोझ समाप्त हो सके और लड़कियों की शादी की जा सके। किन्तु वंशीधर एक कर्त्तव्यपरायण एवं ईमानदार अफसर थे। पिता को जब यह सूचना मिली कि उनके पुत्र की नियुक्ति नमक के दारोगा पद पर हो गई है तो वे फूले नहीं समाए, क्योंकि इस नौकरी में ऊपरी आमदनी की पर्याप्त सम्भावना थी।
वंशीधर कर्त्तव्यपरायण एवं ईमानदार अफसर थे। थोड़े ही दिनों में अपनी कार्य-कुशलता से उन्होंने विभागीय अफसरों को प्रसन्न कर लिया और वे विभाग के एक विश्वस्त अफसर के रूप में प्रसिद्ध हो गए। जिस स्थान पर उनकी नियुक्ति हुई वहाँ पण्डित अलोपीदीन सबसे प्रतिष्ठित जमींदार एवं व्यापारी थे। लाखों का लेन-देन, लम्बा-चौड़ा व्यापार। एक रात उनकी कई गाड़ियाँ, जिनमें नमक लदा हुआ था, वंशीधर ने पकड़ लीं, क्योंकि नमक पर प्रतिबन्ध लगा था। अलोपीदीन ने उन्हें रिश्वत देकर गाड़ियाँ छुड़ानी चाही किन्तु वंशीधर ने एक न सुनी। रिश्वत एक हजार से बढ़ाकर चालीस हजार तक देने की बात अलोपीदीन ने कही, किन्तु वंशीधर टस-से-मस न हुए और उन्होंने पण्डित अलोपीदीन को गिरफ्तार कर लिया।
अलोपीदीन चलते-पुरजे व्यक्ति थे। अधिकारी उनके भक्त, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक थे। मुकदमा अदालत में पहुँचा और डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपना फैसला अलोपीदीन के पक्ष में सुनाया। अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया और वंशीधर को उद्दण्ड, विचारहीन बताते हुए चेतावनी दी कि व्यर्थ में भलेमानुषों को इस तरह बिना सोचे-विचारे तंग न करें। वकील प्रसन्न हो गए। अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। वंशीधर पर चारों ओर से व्यंग्य बाणों की बौछार होने लगी।
धनवान् व्यक्ति से बैर मोल लेने का नतीजा वंशीधर को भुगतना पड़ा। विभाग ने भी उन्हें निलम्बित कर दिया। कर्त्तव्यपरायणता का दण्ड उन्हें भुगतना पड़ रहा था, अत: वे निराश, दुःखी एवं व्यथित थे। घर पर पहुँचे तो पिता ने भी खूब खरी-खोटी सुनाई, पत्नी ने तो कई दिनों तक सीधे मुँह बात तक नहीं की।
एक सप्ताह बाद पण्डित अलोपीदीन सजे हुए रथ पर सवार होकर कई नौकरों के साथ वंशीधर के घर पर आए। उनके पिता ने अपने बेटे की नालायकी का उल्लेख करते हुए अलोपीदीन की अगवानी की और कहा-“लड़का अभागा है, कपूत है नहीं तो आपसे मुझे आज मुँह कहाँ छिपाना पड़ता" ? अलोपीदीन ने उन्हें रोकते हुए कहा- “आप ऐसा न कहें। संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं, जो धर्म पर अपना सब कुछ न्योछावर कर सकें।
पण्डित अलोपीदीन ने वंशीधर के समक्ष यह स्वीकार किया कि उन्होंने धन-बल से बड़े-बड़े अधिकारियों को परास्त किया, किन्तु आपकी कर्तव्यपरायणता, नैतिकता एवं ईमानदारी से मैं परास्त हो गया हूँ। वंशीधर ने विनम्रता दिखाते हुए कहा कि मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, इसीलिए आपको गिरफ्तार करना पड़ा, अन्यथा मैं आपका दास हूँ। आप जो आज्ञा देंगे, अवश्य पूरी करूँगा।
पण्डित अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ कागज निकाला। इस पत्र पर वंशीधर को उन्होंने अपनी सम्पूर्ण जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त किया था। छः हजार वार्षिक वेतन और अन्य सारी सुविधाएँ-नौकर-चाकर, सवारी, घोड़े-गाड़ी, बंगला-सब मुफ्त।
अलोपीदीन ने कहा, मुझे ऐसा ईमानदार व्यक्ति तो चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा। वंशीधर ने कहा, मैं इस पद के योग्य नहीं हूँ। तब अलोपीदीन ने कहा मुझे आप जैसे अयोग्य की ही जरूरत है, वंशीधर ने उस कागज पर हस्ताक्षर कर दिए और वह पद स्वीकार कर लिया। अलोपीदीन ने उन्हें गले से लगा लिया।