1. भाषा की चित्रात्मकता।
संध्या का समय था। बूढ़े मुंशीजी बैठे राम - नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिएँ बैलों की जोड़ी, उनकी गर्दनों में नीले धागे, सींगें पीतल से जड़ी हुई। कई नौकर लाठियाँ कंधे पर रखे साथ थे।
2. लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे से युक्त भाषा
- अधिकारियों के पौ - बारह थे।
- मैं कगारे पर का वृक्ष हूँ।
- मासिक वेतन पूर्णमासी का चाँद है।
- यही मेरी जन्म भर की कमाई है।
- पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।
- अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है।
- बड़े चलते - पुरजे आदमी थे।
- पंडित जी को लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था।
- घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें।
- कोड़ियों पर ईमान बेचते फिरते हैं।
- हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं।
- आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।
- दुनिया की जीभ जागती थी।
- बिना मोल के गुलाम थे।
- न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया।
- घर में चाहे जैसा अँधेरा हो मस्जिद में अवश्य दीया जलायेंगे।
- पत्नी ने तो कई दिन सीधे मुँह बात तक न की।
- आपको कौन - सा मुँह दिखावें, मुंह पर तो कालिख लगी हुई है।
3. हिन्दी - उर्दू के बोलचाल के शब्दों का प्रयोग -
घूस, बरकन्दाजी, फारसीदां, रोजगार, कगारे का वृक्ष, पीर का मजार, आमदनी, बरकत, गरजवाला, कलवार, गोलमाल, . तमंचा, काना - फूसी, सदाव्रत, दारोगा, लिहाफ, नमकहराम, हिरासत, हुक्म, रौब, मुख्तार, पैरों तले कुचलना, जीभ चलना, बिना मोल के गुलाम, गवाह, दंडवत्।
चित्रात्मक भाषा के प्रयोग से पूरा दृश्य आँखों के समक्ष आ जाता है जबकि लोकोक्तियों एवं मुहावरों के प्रयोग से भाषा की अभिव्यक्ति - क्षमता में वृद्धि हुई है। बोल - चाल के शब्दों का प्रयोग होने से भाषा में अद्भुत रवानगी एवं प्रवाह आ गया है।