प्रेमचंद की कहानियों में यह विशेषता हैं कि उनके पात्र जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करते हैं। नमक का दारोगा' कहानी के निम्न पात्र समाज को सच्चाई को उजागर करते हैं।
(क) वृद्ध मुंशी -
(अ) पाठ का अंश - बेटा ! नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते - घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है।
(ब) समाज की सच्चाई - वृद्ध मुंशी के माध्यम से कहानीकार ने समाज के उन अभिभावकों का स्वभाव उजागर किया है, जो अपने पाल्यों (पुत्रों) को अच्छे संस्कार देने के स्थान पर धन कमाने के लिए अनैतिक आचरण, रिश्वत, भ्रष्टाचार करने के लिए प्रेरित करते हैं। बेटा ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता और नीति पर चले इस बात पर बल नहीं बल्कि बल इस बात पर देते है कि जल्दी से जल्दी धन कमाकर हमारी आवश्कताओं की पूर्ति करो। हमने अपनी आशाएँ तुम्हीं पर लगा रखी हैं। जब ईमानदारी एवं कर्तव्य परायणता के कारण वंशीधर को निलम्बित कर दिया गया, तब वृद्ध मुंशी ने पुत्र को बुरा - भला कहा। अलोपीदीन के घर आने पर वे यही कहते हैं कि क्या करूँ मेरा पुत्र कपूत निकला।
(ख) वकील -
(अ) पाठ का अंश - वकीलों ने फैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले। स्वजन - बांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा, उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी।
(ब) समाज की सच्चाई - आज अदालतों में न्याय की विजय नहीं होती, असत्य की विजय होती है। वकील झूठे गवाह तैयार करके किसी भी कमजोर केस को पैसे के बल पर जीत लेते हैं। फिर धनवान् व्यक्ति से मुँहमाँगी रकम प्राप्त कर लेते हैं। आज गरीबों को न्याय नहीं मिल पाता। ईमानदार एवं कर्त्तव्यपरायण व्यक्ति न्याय के लिए तरसते रह जाते हैं और बेईमान लोग धन के बल पर न्याय को अपने पक्ष में मोड़ लेते हैं, इसी सच्चाई को कहानीकार उजागर कर रहा है।
(ग) शहर की भीड़ -
(अ) पाठ का अंश - दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक - वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका - टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से सब पापियों का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ - साहूकार ये सभी देवताओं की भाँति गर्दनें चला रहे थे।